Thursday, June 18, 2009

कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें..


inext के मूल लेख हेतु लिंक -http://inext।co.in/epaper/Default.aspx?pageno=16&editioncode=3&edate=6/18/2009

पांच साल बाद मिलने पर भी दोनों की ऩजरें एक-दूसरे को हसरत से देखती रहीं. दोनों किसी जमाने में साथ पढ़ते थे. प्रिया के लिए रोहन वो सारे जतन करता था जिससे उसे इस बात का एहसास हो सके कि वो उससे कितना प्यार करता है. लेकिन कहने की हिम्मत कभी न जुटा पाया और एक दिन कॉलेज खत्म करके दोनों अपने-अपने रास्ते पर लौट आए. आज पांच साल बाद भी दिल की बात न कह पाने की कसक रोहन के चेहरे पर साफ दिखती है. यकीन मानें, न कह पाने का दर्द किसी भी दर्द से ज्यादा पीड़ा देने वाला होता है और शायद इसीलिए कहने की कला सीखना सबसे ज्यादा जरूरी है. याद करें कितनी चीजें हैं जो आप नहीं कहते तो क्या होता. ये बात सिर्फ प्यार, संबंधों या भावनाओं की नहीं हमारी लाइफ में भी कितनी ऐसी चीजें हैं, जो सिर्फ हमारे कहने से ही होती हैं. जब हम छोटे थे, तो पापा से कहा कि हमें ऐसी साइकिल चाहिए. मुझे इस कलर की जैकेट चाहिए या मुझे ये खाना है और हमें वो चीज मिली. ये कहने और बताने की फीलिंग ही अलग है, पुरानी कहावतें सच ही हैं कि कहने से दिल का बोझ हल्का हो जाता है. आज जब हमारी जिंदगी रफ्तार पकड़ चुकी है. हम फटाफट जेनरेशन में जी रहे हैं, तो चीजों को बताने की इंपॉर्टेस और भी बढ़ जाती है. कितनी बार आपको लगा कि जॉब में आपके कलीग को प्रमोशन मिल गया, जबकि आप अधिक डिजर्विग थे. शायद इसलिए क्योंकि आपने अपनी खूबियां, अपना काम लोगों को बताया नहीं और ये दौर बताने और जताने का दौर है. आपने जो किया उसे दिल खोलकर सबको बतायें. बतायें कि आपने कितनी मेहनत की अपना टारगेट अचीव करने में और फिर शायद रिजल्ट आपको एक बार फिर लोगों के बीच खुशियां बांटने का मौका दे, बताने और जताने का मौका दे. आपने कभी अपने पैरेन्ट्स की आंखों में आंखें डालकर यह बताने की कोशिश की है कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं. शायद इसलिए नहीं क्योंकि आपको लगता होगा कि उन्हें तो पता ही है. लेकिन एक बार कहकर देखिये, वो लम्हा बहुत ही खास होगा. कितने ही रिश्ते लैक ऑफ डायलॉग यानी संवादहीनता के चलते टूट जाते हैं. अकसर हमारे साथ भी होता है, जब हम किसी से नाराज होते हैं तो हमेशा यही सोचते हैं कि मैं क्यों पहले बोलूं, उसे बोलना चाहिए और ये संवादहीनता इस नाराजगी को रिश्तों के अंत की ओर ढकेल देती है. क्यों सोचना कि कौन पहले बोलेगा. दिल खोलकर बोलिये और बटोर लीजिये सारी खुशियों को जो आपसे दूर भाग रही थीं, इस छोटी सी जिंदगी में कई ऐसे मुकाम आयेंगे, जब लोग आपको आपकी बातों से याद रखेंगे. वो दौर अब चला गया है, जब लोग एक-दूसरे के एक्सप्रेशन, उनके काम को देखकर समझ लेते थे. आज अपनी भावनाओं, अपने काम को बताना जरूरी हो गया है. मेरे एक मित्र इसे सेल्फ एडवर्टीजमेंट कहते हैं और सच कहते हैं. क्योंकि ये विज्ञापनों का दौर है तो जितना बेहतर हम अपनी बातें लोगों तक पहुंचायेंगे शायद उतने ही अच्छे रिजल्ट मिलें. संबंधों में तो यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज की स्ट्रेसफुल लाइफ में किसी के एक्सप्रेशन देखकर हमारी फीलिंग्स को समझने की फुर्सत नहीं है. सच पूछिये तो ऐसी कोई एक्सपेक्टेशन भी बेजा ही लगती है. तो क्यों न जल्दी से सीख लें हम सब खुद को ठीक-ठीक एक्सप्रेस करने की कला. मैं भी चलूं क्योंकि मुझे भी किसी से कुछ कहना है, कम से कम कोशिश तो करनी ही है. कहीं देर न हो जाए..

Friday, June 12, 2009

गली के उस मोड़ पर

एक नीम का पेड ,गली के उस मोड़ पर

चंद पान की दूकाने और एक चाय का ढाबा

गली के कुछ बदमुज्जना लड़के और हॉस्टल की तारिकाओ का आना जाना

चीजे बदल रही है तेजी से पर रफ्तार आज भी यहाँ धीमी है

लोग पहचानते है सबके चेहरे , कुछ के नाम भी ।

एक छोटा मंदिर भी है उसी नुक्कड़ पर ,

जिसके बरामदे मे कुछ उम्रदराज लोगो का जमघट लगता है


गुजरे ज़माने के बातें ,यादें और बतकही साथ चाय के कुछ गर्म प्याले ,

हर साल जाडे के दिनों मे एक कम हो जाता है उनमे से ,

सबके चेहरे मायूएस होते है आँखों मे दुख और डर के भावः उभरते है

की अब किसकी बारी है , हर कोंई एक दुसरे को हसरत से ताकता है ,

कुछ दिनों तक जमघट नहीं लगता , मंदिर का बरामदा सूना हो जाता

पर फिर एक दिन फिर वही हंसी वही बतकही ,

सच है यही है जिन्दगी हाँ यही है जिन्दगी