Thursday, December 31, 2009

midnight poem on new year eve.

फलक पर कुछ सितारों का झुरमुट
जमी पर आतिश की कुछ चिनगारीयां
शाएद ये कोंई खास पल है ..
लोग खुश है , लोग उत्साहित है
उत्सवधर्मिता फजाओं मे घुली सी है
उत्साह एक आने वाले कल का ,
कल के नए सपनो का, नयी इच्छाओं का , वादों का ,खुशिओं का
उस अनदेखे कल का जो हम उम्मीद करते है सुखद हो ..
कल कोंई २६/११ न हो , कल कोंई रेस्सेसन न आये,
कल कोंई अपना न छूटे , कल कोंई दिल न टूटे ,
कल सूरज एक नयी रोशनी लाये ,
कल फजाएं एक नया गीत गुनगुनाएं .
कल हम अपने सपनो के ओर भागें
और मुट्ठी मे भर लायें
कल वो कल आये जब हम खुशिओं को घर लायें ....

Thursday, July 23, 2009

मेरी त्रिवेणी -2


धीरे-धीरे समेट लिये सारे रिश्ते उसने ,जेसे समेट लेता है कोंई ,

आँधी आने से पहले आगन मे सूख रहे कपडे !

बड़ी हसरत से ताकता रहा बादलो को , हाथ मे रेनकोट लेकर .

पर बेवफा इस सावन बरसात ही नहीं हुई !

Wednesday, July 22, 2009

How Long? (With apologies to Gurudeva Tagore)


Where the corrupt and the criminal hold their heads high and roam free
Where the mighty cock a snook at the nation's law
Where rapists, kidnappers, murderers become ministers with ease
And wallowing in sleaze.
Move lordly in their sphere
In shiny limos
With angry red beacons flashing fear
That all can see
The poor citizen, the wretched voters, the common man cowers
In dread of the guilty with awe
Where what is dead and buried and scataphagus is extolled
And sung in song
In such a country, O Lord! to die one must live
For how long

Saturday, July 4, 2009

मेरी त्रिवेणी

'हम खामोस रहे चुपचाप सहे ,हर दर्द सही हर मर्ज सही


सोचता हूँ अब डॉक्टर से मिल लूं "



"कुछ दूर तक चलना था साथ , पर किसी के कदम रूक गए


सुना है पाऊँ भारी होने का डर था !"



Thursday, June 18, 2009

कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें..


inext के मूल लेख हेतु लिंक -http://inext।co.in/epaper/Default.aspx?pageno=16&editioncode=3&edate=6/18/2009

पांच साल बाद मिलने पर भी दोनों की ऩजरें एक-दूसरे को हसरत से देखती रहीं. दोनों किसी जमाने में साथ पढ़ते थे. प्रिया के लिए रोहन वो सारे जतन करता था जिससे उसे इस बात का एहसास हो सके कि वो उससे कितना प्यार करता है. लेकिन कहने की हिम्मत कभी न जुटा पाया और एक दिन कॉलेज खत्म करके दोनों अपने-अपने रास्ते पर लौट आए. आज पांच साल बाद भी दिल की बात न कह पाने की कसक रोहन के चेहरे पर साफ दिखती है. यकीन मानें, न कह पाने का दर्द किसी भी दर्द से ज्यादा पीड़ा देने वाला होता है और शायद इसीलिए कहने की कला सीखना सबसे ज्यादा जरूरी है. याद करें कितनी चीजें हैं जो आप नहीं कहते तो क्या होता. ये बात सिर्फ प्यार, संबंधों या भावनाओं की नहीं हमारी लाइफ में भी कितनी ऐसी चीजें हैं, जो सिर्फ हमारे कहने से ही होती हैं. जब हम छोटे थे, तो पापा से कहा कि हमें ऐसी साइकिल चाहिए. मुझे इस कलर की जैकेट चाहिए या मुझे ये खाना है और हमें वो चीज मिली. ये कहने और बताने की फीलिंग ही अलग है, पुरानी कहावतें सच ही हैं कि कहने से दिल का बोझ हल्का हो जाता है. आज जब हमारी जिंदगी रफ्तार पकड़ चुकी है. हम फटाफट जेनरेशन में जी रहे हैं, तो चीजों को बताने की इंपॉर्टेस और भी बढ़ जाती है. कितनी बार आपको लगा कि जॉब में आपके कलीग को प्रमोशन मिल गया, जबकि आप अधिक डिजर्विग थे. शायद इसलिए क्योंकि आपने अपनी खूबियां, अपना काम लोगों को बताया नहीं और ये दौर बताने और जताने का दौर है. आपने जो किया उसे दिल खोलकर सबको बतायें. बतायें कि आपने कितनी मेहनत की अपना टारगेट अचीव करने में और फिर शायद रिजल्ट आपको एक बार फिर लोगों के बीच खुशियां बांटने का मौका दे, बताने और जताने का मौका दे. आपने कभी अपने पैरेन्ट्स की आंखों में आंखें डालकर यह बताने की कोशिश की है कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं. शायद इसलिए नहीं क्योंकि आपको लगता होगा कि उन्हें तो पता ही है. लेकिन एक बार कहकर देखिये, वो लम्हा बहुत ही खास होगा. कितने ही रिश्ते लैक ऑफ डायलॉग यानी संवादहीनता के चलते टूट जाते हैं. अकसर हमारे साथ भी होता है, जब हम किसी से नाराज होते हैं तो हमेशा यही सोचते हैं कि मैं क्यों पहले बोलूं, उसे बोलना चाहिए और ये संवादहीनता इस नाराजगी को रिश्तों के अंत की ओर ढकेल देती है. क्यों सोचना कि कौन पहले बोलेगा. दिल खोलकर बोलिये और बटोर लीजिये सारी खुशियों को जो आपसे दूर भाग रही थीं, इस छोटी सी जिंदगी में कई ऐसे मुकाम आयेंगे, जब लोग आपको आपकी बातों से याद रखेंगे. वो दौर अब चला गया है, जब लोग एक-दूसरे के एक्सप्रेशन, उनके काम को देखकर समझ लेते थे. आज अपनी भावनाओं, अपने काम को बताना जरूरी हो गया है. मेरे एक मित्र इसे सेल्फ एडवर्टीजमेंट कहते हैं और सच कहते हैं. क्योंकि ये विज्ञापनों का दौर है तो जितना बेहतर हम अपनी बातें लोगों तक पहुंचायेंगे शायद उतने ही अच्छे रिजल्ट मिलें. संबंधों में तो यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज की स्ट्रेसफुल लाइफ में किसी के एक्सप्रेशन देखकर हमारी फीलिंग्स को समझने की फुर्सत नहीं है. सच पूछिये तो ऐसी कोई एक्सपेक्टेशन भी बेजा ही लगती है. तो क्यों न जल्दी से सीख लें हम सब खुद को ठीक-ठीक एक्सप्रेस करने की कला. मैं भी चलूं क्योंकि मुझे भी किसी से कुछ कहना है, कम से कम कोशिश तो करनी ही है. कहीं देर न हो जाए..

Friday, June 12, 2009

गली के उस मोड़ पर

एक नीम का पेड ,गली के उस मोड़ पर

चंद पान की दूकाने और एक चाय का ढाबा

गली के कुछ बदमुज्जना लड़के और हॉस्टल की तारिकाओ का आना जाना

चीजे बदल रही है तेजी से पर रफ्तार आज भी यहाँ धीमी है

लोग पहचानते है सबके चेहरे , कुछ के नाम भी ।

एक छोटा मंदिर भी है उसी नुक्कड़ पर ,

जिसके बरामदे मे कुछ उम्रदराज लोगो का जमघट लगता है


गुजरे ज़माने के बातें ,यादें और बतकही साथ चाय के कुछ गर्म प्याले ,

हर साल जाडे के दिनों मे एक कम हो जाता है उनमे से ,

सबके चेहरे मायूएस होते है आँखों मे दुख और डर के भावः उभरते है

की अब किसकी बारी है , हर कोंई एक दुसरे को हसरत से ताकता है ,

कुछ दिनों तक जमघट नहीं लगता , मंदिर का बरामदा सूना हो जाता

पर फिर एक दिन फिर वही हंसी वही बतकही ,

सच है यही है जिन्दगी हाँ यही है जिन्दगी

Monday, May 25, 2009

हां मै निराश हूँ

दिल अब टूट चुका है मन बोझिल है , सपने फाख्ता है
हां मै निराश हूँ अपने आप से
मै नही बदल सका अपने आप को , अपनी मासूमियत , अपने भोलेपन को
हां सच मे मै नही बदल सका बदलाव के इस दौर मे
आज भी झूट बोलते होठ काप जाते है ,जलील नही कर पाता मै किसी को
कदर है मुझे लोगो के झूटी भावनावो की जानते हुए की झूठे है
हा सच बाकी है मेरे अन्दर अभी भी .
आंखे सूज गयी है उनमे नीद है , ढेर सारी नीद ...

Wednesday, May 20, 2009

नज़रिया नया-नया सा


मूल लेख हेतु लिंक -
http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?pageno=16&editioncode=3&edate=5/21/2009




आजकल रोहन के पापा उसके सेलफोन पर लगे रिंगटोन को सुनकर सिर्फ मुस्कुरा देते हैं. कौन सी है वो रिंगटोन..कण्डोम..कण्डोम.. हां, सचमुच अब वे नाराज नहीं होते बल्कि मुस्कुरा देते हैं. उनका ऩजरिया बदल गया है, वरना पांच साल पहले तक टीवी पर ऐसे ऐड आते ही वो चैनल चेंज करने की कवायद में जुट जाते थे. पर आज हमारे एडवर्टाइजिंग व‌र्ल्ड ने उन्हें बदलती सोसायटी और उसकी जरूरतों को समझने में सक्षम बना दिया है. उन्हें पता है जानकारी ही बचाव है और उन्हें इस जानकारी को बांटने में कोई गुरेज नहीं. जी हां, बदल गया है हमारा एडवर्टाइजिंग व‌र्ल्ड अब वो सिर्फ अपना प्रोडक्ट नहीं बेचता हमारे सपने, हमारी जरूरतों को भी बेचता है. हां मैं अलग थी, हां मैं उड़ना चाहती थी. एक एयरहोस्टेस ट्रेनिंग इंस्टीटट्यूट के इस विज्ञापन ने गोरखपुर के एक छोटे से कस्बे में रहने वाली श्रद्धा को हौसला दिया एयरहोस्टेस बनने का. उसने घरवालों को कन्विंस किया पापा की नाराजगी सही और चली आयी अपने सपनों को लेकर महानगर में. आज वो एयरहोस्टेस तो न बन सकी, पर एक कॉल सेंटर में जॉब करती है और एमबीए के लिए प्रिपरेशन कर रही है, कहती है, मैं खुश हूं. अपनी दुनिया खुद बनाऊंगी. घरवाले भी साथ हैं, इस मदर्स डे पर जब मम्मी के लिए गिफ्ट लेकर घर गयी तो उनकी आंखें भर आयीं, एकदम फिल्मी स्टाइल में. उस विज्ञापन ने श्रद्धा के सपने पूरे तो नहीं किये, लेकिन बड़े जरूर कर दिये. ये बात सिर्फ कस्बे में रहने वाली उस लड़की की नहीं हमारा आज का विज्ञापन जगत हमारी भावनाओं, परंपराओं, हमारी सोच को एक नया रंग दे रहा है और सबसे इंपॉटर्ेंट यह है कि ये रंग झूठे नहीं, इनमें वो बात है जो हमें कुछ करने को प्रेरित करती है. आपको याद होगा, एक टेलीकॉम कम्पनी का वो विज्ञापन जिसमें नेता जी कुछ भी करने से पहले जनता की राय लेना नहीं भूलती थीं. खेतों में शॉपिंग मॉल होना चाहिए या नहीं, पॉलिथीन का प्रयोग बंद होना चाहिए या नहीं इन सारे मुद्दों पर नेता जी जनता से बात करती थीं. सोशल और पॉलिटिकल चेंज की बात करने वाले इस विज्ञापन ने चुनावों से पहले लोगों के बीच अवेयरनेस का बेहतरीन काम किया. इसी श्रेणी में एक प्रतिष्ठित टी कंपनी के विज्ञापन ने हमसे जागने और वोट करने की गुजारिश की. उसने जरूर कहीं न कहीं असर दिखाया और युवाओं ने इस इलेक्शन के दौरान वोटिंग में बढ़-चढ़ कर पार्टिसिपेट किया. यह एक पॉजिटिव चेंज है, तो शायद उन लोगों को करारा जवाब है जो यह कहते थे कि विज्ञापन सिर्फ अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए नये-नये हथकंडों या अश्लीलता का सहारा लेते हैं. जिन चीजों की सोशल एक्सपेप्टेंस हो रही है, विज्ञापन जगत को उसे दिखाने में कोई झिझक नहीं. इमरजेन्सी कॉन्टिसेप्टिव पिल्स के एक एड में प्री-मेरिटल सेक्स सही है या गलत इस बहस में न फंसकर सेफ सेक्स की बात को हाईलाइट किया है. शायद यह एक बड़े बदलाव का इशारा है. अभी हालिया दिनों में एक एसी निर्माता कंपनी ने अपने विज्ञापन में बिजली बचाने की अपील की. उसके हिसाब से अगर आप उस कंपनी का एसी लगाते हैं तो बिजली की बचत होगी. जिससे अंधेरे गांव में रह रहे लोगों की जिंदगी में उजाला आयेगा. हालांकि इस तरह अपने प्रोडक्ट के प्रमोशन के साथ-साथ सोशल अवेयरनेस फैलाना काफी कठिन काम होता है खुद विज्ञापन जगत से जुड़े होने के कारण मुझे इस बात का बखूबी अंदाजा है कि विज्ञापन एजेंसियों पर प्रोडक्ट प्रमोशन का कितना दबाव होता है लेकिन ऐसे में सोशल अवेयरनेस को उसके साथ जोड़ने वाले क्रिएटिव लोग सचमुच बधाई के पात्र हैं एडवर्टाइजिंग व‌र्ल्ड में ये एक नये दौर की शुरुआत है. जिसे मैं सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) की तर्ज पर एएसआर (एडवरटाइजिंग सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) का नाम देना पसंद करूंगा और फर्क इस बात का कि हमारे एडवर्टाइजिंग व‌र्ल्ड ने इसकी उम्दा शुरुआत की है.

Tuesday, May 5, 2009

बियोग के मेरे दोहे


मै तो तेरी याद मे , तड़पा सारी रात !
मुझे छोड़ सबसे मिली , तू बड़ी ख़ुशी के साथ !!

पत्ते सारे ऊड़ गए , फूल गए मुरझा !
दूर गयी तू मुझे छोड़ , मै तुझे नहीं समझा !!

तस्वीरे बेरंग थी , रंग था मेरे पास !
कूची लेकर मै खडा , मोहे तेरी आस !!

छोटी थी आखें मेरी , छोटी मेरी नीद !
सपने कैसे बड़े हो गए , मै न समझा भेद !!

तेरे सपने तेरे बातें , तू ही मेरी सांसो मे !
मौसम जैसी तू बदली , अब यादें चुभती आँखों  मे !!

मै हँसता था लोंगो पर , हालत उनकी देखकर !
मेरी हालत अब वैसी है , हँसते है वो ये कहकर !!

सपने बीधे , यादें पालीं , खुशिओं को आँसू से सीचा ! 
आयी आंधी हवा हो गए , रंग हो गया सबका फीका !!

दिन मे उलझा रातें जागीं , तेरी इस रुसवाई मे !
तू तो लेकिन खुस दिखती, अपनी इस परछाईं मे !!


बहुत दूर निकल गया हूँ मैं उन खुशिओं से

बहुत दूर निकल गया हूँ मैं उन खुशिओं से अब ,
नयी खुशिओं के पाने के तलाश में हूँ
वो माँ का आँचल,गौरैया चिडिया के पंखो को रंगना अब कहानी सी लगाती है
हाँ मै बहुत दूर निकल आया हूँ उन खुशिओं से...
आंगन में वो जो आम के पेड़ लगाये थे
अब उनमे बौर आ गए हैं
सच में उनसे बहुत दूर निकल आया हूँ.
नयी खुशिओं की तलास में

एक पतग के पीछे वो हमारा भागना ..
वो एक पतग लूटने की ख़ुशी
हा मै बहुत दूर निकल आया हूँ उस ख़ुशी से ...

हाथो मे वो एक रूपये का सिक्का लेकर
पूरा बाज़ार खरीदने की मासूम चाहत
कहाँ चली गयी वो खुशिएँ ...
हाँ कहाँ गयी वो खुशिएँ ...